Friday, August 24, 2012

आजकल....

अब कुछ इस तरह से है कि लैपटाॅप के सामने,
 दिमाग़ के कुछ पुर्ज़े खुल से जाते हैं...
जो इन दिनों लेटे हुए सोते रहते थे...
वो अरमान भी ज़रा ज़रा जाग जाते हैं।

सोचकर लिखने जब काग़ज़ कलम उठाकर चलते थे
कहानी नीरस हो जाती थी,... बेमानी,
नहीं, बस यूँ समझो
अनजानी बन जाती थी,
मन खोने की कोशिश करते करते थकने लगता जब,
तब इकदम से यादों की लहर भरपूर भिगाती थी ।

गूँजी जबदिल में आह! तो बाहर भी सुनाई पड़ा,
यूँ कि कोई बेबस मन खो जाने का बहाना ढूढं रहा है...
या फिर कुछ यादों ने बरबस ही लम्बी साँसें ले डाली
इतनी लम्बी साँसें कि बस हलक मे फँस कर रह गई
दिल से निकल कर आह! आँखों में उतर आई।

याद उन पलों की ताज़ी हो चली थी...
जब जिंदा होकर भी  मर मर कर जीते रहे थे...
और मरने की ख्वाहिश में जीना ही भूल गए?







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